भारत के राष्ट्रत्व का अनन्त प्रवाह Bharat ke Rashtratva ka anant pravaah

आज राष्ट्र के स्वत्व के संदर्भ में नकारात्मक टिप्पणियों को सही मानने की प्रवृत्ति देखकर लगता है कि टिप्पणीकार और उसके पक्ष में खड़े होने लोगों को अपने देश के स्वत्व की जानकारी शायद कम है। इसी पृष्ठभूमि पर एक सार्थक विवेचन है ‘भारत के राष्ट्रत्व का अनंत प्रवाह’।

Author : Ranga Hari ; Pages 216

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पुस्तक परिचय 

आज राष्ट्र के स्वत्व के संदर्भ में नकारात्मक टिप्पणियों को सही मानने की प्रवृत्ति देखकर लगता है कि टिप्पणीकार और उसके पक्ष में खड़े होने लोगों को अपने देश के स्वत्व की जानकारी शायद कम है। इसी पृष्ठभूमि पर एक सार्थक विवेचन है ‘भारत के राष्ट्रत्व का अनंत प्रवाह’।

राष्ट्र को ‘नेशन’ का पर्याय मानने, राज्य को राष्ट्र के समतुल्य समझने के कारण बहुत सारे संशय उत्पन्न होते हैं। वास्तव में हमारे राष्ट्र का प्रादुर्भाव अंग्रेजों के आने के बाद, उनके द्वारा अखिल भारतीय व्यवस्थाएं प्रारम्भ करने के बाद नहीं हुआ। यह सहस्राब्दियों से प्रवाहमान एक समुन्नत राष्ट्र है। सनातन राष्ट्र को मान्य करने वालों तथा नवराष्ट्रवादियों का भिन्न चिंतन देश में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न करता रहा है। अत: आवश्यक हो जाता है कि भारत के राष्ट्रत्व और उसके विकास को ठीक से समझा जाए और उसके अनंत प्रवाह में अवगाहन किया जाए, तभी हम अपनी भूमिका ठीक से निभा पाएंगे।

प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम अध्याय में रा.स्व.संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रंगाहरि ने राष्ट्र, राष्ट्र के विकास, राज्य की उत्पत्ति, राष्टÑ-राज्य संबंध, अंग्रेजों द्वारा किया गया मंत्रविप्लव, उससे बाधित व अबाधित महापुरुष, समाज में सहजता से बहती गुप्तगंगा आदि उन्नीस तरंगों पर बहते अनंत प्रवाह में गहरे उतरकर भारत के राष्ट्रत्व की संदर्भ सहित विशद् चर्चा की है।

भारत में ‘राष्ट्र’ की कल्पना कितनी पुरानी है, इसका विचार, चिंतन, इतिहास व साहित्य-ग्रंथों का परिशोधन करते समय ध्यान आता है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में राष्ट्र का उल्लेख अनायास नहीं आया, बल्कि आठों विभक्तियों के साथ है। उसके बाद ब्राह्मण ग्रंथों, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि के काल में उल्लेख स्पष्टतर होता गया है। हिमालय से समुद्रपर्यंत हमारे देश का नाम ‘भारत’ महाभारत में स्पष्टत: मिलता है। राज्य का संबंध उस व्यवस्था से है, जो राजा द्वारा किसी भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाली प्रजा के योगक्षेम की संभाल के लिए की जाती है।

रंगाहरि जी का विवेचन इस ध्यातव्य को कुशलता से रेखांकित करता है कि स्वर्विद, भद्रेच्छु, विश्वहृदयी ऋषियों के तप से वेदकालोत्पन्न भारत राष्ट्र, सहस्राब्दियों पश्चात यूरोपोत्पन्न ‘नेशन’ से बिल्कुल भिन्न है। राष्ट्र कल्पना का आविर्भाव भावात्मक है, शांतिजन्य है जबकि ‘नेशन’ प्रतिक्रियाजन्य है, हिंसाजन्य है। अत: राष्ट्र का अंग्रेजी भाषांतर ‘नेशन’ नहीं हो सकता।

दूसरे अध्याय में संघ के सहसरकार्यवाह श्री मनमोहन वैद्य जाति, वर्ण, महिला संबंधी प्रश्नों की चर्चा के परिप्रेक्ष्य में हिन्दुत्व की दृष्टि से संक्षिप्त, किंतु सारगर्भित व्याख्या करते हैं। न केवल दर्शन या विचार, अपितु हमारे पूर्वज महापुरुषों के व्यवहार के उदाहरण भी लक्षणीय हैं। तृतीय अध्याय में संघ के अभिलेखागार प्रमुख श्री मिलिंद ओक द्वारा आज हिंदुत्व के समक्ष आ रहीं या आने वाली अंतर्बाह्य चुनौतियों की सटीक व सोद्धरण जानकारी और उनके संदर्भ में हमारे विचारणीय और करणीय की ओर संकेत किया गया है। चौथे अध्याय में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. भगवतीप्रकाश द्वारा हिंदुत्व के समग्र दर्शन के संदर्भ में कृषि, पौधारोपण, पारिस्थितिकी तंत्र, विकास की दशा व दिशा, रोजगार आदि का वर्णन पाठकों को गंभीर चिंतन, समाज प्रबोधन व निजी व्यवहार में ढालने हेतु प्रवृत्त करने में सहयोगी हो सकेगा। पुस्तक के अंतिम भाग में संगोष्ठी में उपस्थित महानुभावों की जिज्ञासाओं का रंगाहरि जी द्वारा किये गए समाधानों का संकलन है।

Pages : 216 ; Publisher : Vimarsh Prakashan ; Language : Hindi

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Ranga Hari

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