Description
आज भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम का उल्लेख होता है, तो इसकी तहों में उतरते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस बात से अंतर नहीं पड़ता कि कितनी पीढ़ियां गुजरीं, अंतर इस बात से पड़ता है कि जिसे हम स्वतंत्रता कहते हैं। और 1947 से जिसकी गिनती करते हैं, वह वास्तव में ‘स्व’ की लड़ाई थी और जितनी ऊपरी तौर पर दिखती है उससे कहीं ज्यादा पुरानी थी।
“यह ऐसी जंग नहीं है जो जीहुजूर और ताबेदार लड़ रहे हैं। हमारा सामना एक विकट और संलिष्ट जंग से है। जो रिलीजन के विरुद्ध है, नस्ल के खिलाफ है।
ये प्रतिशोध की, आशा और अपेक्षा की जंग है। – विलियम हार्वर्ड रसेल, युद्ध संवाददाता (‘माई डायरी इन इंडिया’)
गहरे और पुराने घाव-चोटें ज्यादा टीसती हैं। स्वतंत्रता के लिए भारतीय समाज के लोमहर्षक बलिदान बताते हैं कि आक्रमणों-आघातों से उपजी छटपटाहट बहुत गहरी थी।
पहले आक्रांताओं के विरुद्ध और फिर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध। ये एक ऐसा लंबा दुर्धर्ष संघर्ष था जिसमें दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता अपनी अस्मिता पर, अपनी पहचान पर हुए हमले के विरुद्ध उठ खड़ी हुई थी। संत- संन्यासी, किसान-जवान, जनजातीय समाज, महिला, बच्चे, बूढ़े .. समाज के सभी वर्ग, जातियाँ कई सामजिक चेतना और सुधार आंदोलन (ब्रह्म समाज आर्य समाज, सत्यशोधक समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी, प्रार्थना समाज हिन्दू मेला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इत्यादि) इसमें आहुतियां देते हुए दिखा हैं.
माँ भारती के लिए हजारों-लाखों सपूतों का जीवन होम हो जाता है। आध्यात्मिक, राजनीतिक, समाज को संगठित करने वाले, सुधारने वाले आंदोलन और इनके अग्रणी व्यक्ति अलग-अलग हैं परंतु सबकी अलख, सब आवाज, सबका लक्ष्य, सबकी निष्ठा एक ही है, उस ‘स्व’ की प्राप्ति ! उस की पुनर्प्रतिष्ठापना ! हर प्रयास, हर उत्सर्ग में यह चाह हर बार दिखाई देती है।
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